दिव्य संदेश
अखिल विश्व के
मेरे आत्मस्वरूप भाई-बहनो! आपमे से हर व्यक्ति सुखी और
उन्नत हो. हर देश सुरक्षित व समृध्द होकर रहे और संपूर्ण
जगत्, शान्तिपूर्ण तथा स्वर्गतुल्य बने, इसकी चिंता मै रातदीन करता आ रहा हु.
इस ध्येयमुर्ती की पूजा मे मैने जीवनभर समस्त कार्योंके फूल ज़ोंके , वाणीका एक एक शब्द
अर्पित किया और मानसिक संकल्पो का निरंतर धूप जलाया. एक मेरिही बात नही; मेरा येह विश्वास है की संसार मे आजतक जो भी धर्मसंस्थापक, पंथप्रवर्तक, मतप्रचारक या महान राष्ट्रनिर्माता हो चुके है. उनके सामने यही विशाल तथा उंचा लक्ष्य था.और इसिके लिये उन्होंने अपनी चंदनसी काया को कण कण समाप्त कर
दिया लेकिन उसकी फ़लशृती क्या?
सज्जनो!
यह न भुलिये की किसीदेश या दुनियांमे केवल दस पांच महापुरुष
पैदा हो जाने से हि सवाल हल नही हो सकता. जबतक सभी पंथ- पक्ष - धर्म - सम्प्रदायो के अनुयायी अपने जीवन मे महान आत्माओंके विचारोंको निष्टपुर्वक नही उतारेंगे तबतक उनके दिव्य स्वप्न कदापी साकार न हो सकेंगे , यह मानी हुइ बात है. अर्थात इसमे उन महात्माओंका तो कुच बिगडनेवाला नही है लेकिन विनाश होता रहेंगा तो हमाराही.
मित्रो आज
विघ्यान का प्रभाव है, जिसमे संसार के
सारे देश बहुत निकट आ गये है. उनमे यदी भाई - चारा न बढे तो विश्वयुध्द में सबकी आहुंती पड सकती है. आज सारी
दुनिया विनाशके ज्वालमुखी पर्वतपर बैठ विश्वशांती के
नारे लगा रही है. मानव अपनी शक्ति के अदभूत अविष्कार
देख बेफ़ाम हो चुका है. वह विघ्यन शक्तिका दुरुपयोग संहार के लिये कर रहा है, सेवा के लिये नही. परस्पर विश्वास और सहानुभूति खोकर
सारी विश्वमानव आज अशांत और भयग्रस्त है.इस
हाहा:कार का कारण यही है की मनुष्यकी बुध्दी का विकास हुआ, हृदय का नही. भौतिक प्रगतिसे विकारोंको बढावा मिला, विचारों को नही. जाति, पक्ष, पंथ, धर्म भाषा, प्रांत, देश आदि के संकुचित और कल्पित भेदोंको महत्व देकर
मनुष्य आज एक दुसरेसे अलग हो चुका है, बल्कि शत्रू बन गया है. सही मायनेमें मनुष्य आज मनुष्यही नही रहा.और इसके बेइमानी के संकल्प निसर्गसे टकराकर संकटोके
रूपमे उसीके पल्ले पड रहे है. क्या इस मार्गसे वह कभी
खुश हो सकता है ?
सज्जनो ! मानव समाज को यथार्थ मे सुखी बनाने और विग्यान के मानव जाती
सेवामे लगानेका एकमात्र उपाय है - आध्यात्मिक
अधिष्टानके सहारे मानवता का विकास ! अध्यात्मका अर्थ है
सारे विश्व मे व्यापक सच्चिदानंद तत्व. उसिको मैं श्रीगुरुदेव नाम से संबोधित करता हूअ विभिन्न धर्म - पंथ - देशदिके सभी मानव उसी एक तत्व के प्रकट रूप
है. - सुपुत्र है ! उन सबके लिये हमारे दिलमें समभाव,सहानुभूती तथा सक्रिया सेवावृत्ति पैदा हो और जीवनमे सत्यं शिवं सुन्दरम् जैसे जीवन मूल्योंकी प्रतिष्टापना
हो, यही आध्यात्मका
तकाजा है.
भाईयो आध्यात्मिक संस्कारोकां का सबसे अच्छा विद्यापीठ है सामुदायीक ध्यान
- प्रार्थना! जिसके द्वारा हम सब मानवोंमे समता व
सामुदायीकता,सदभावना व सच्चरित्रता बढा सके ऐसी कोई भी सामुदायीक प्रार्थना आत्मोन्नति,राष्ट्रशक्ति तथा विश्वशांति की महान साधना बन सकती है. ग्रामजीवन का सर्वोदय, राष्ट्रीय एकात्मता और विश्वमानवताका विकास सामुदायीक प्रार्थनासेही सहज संभव हो सकता है. मानव संस्कृति का
पवित्र संविधान है सामुदायीक प्रार्थना! आजके सभी
विकृत्तियोंको हटानेवाली दिव्योषधी और स्वर्गसम संसार
इस नये विश्व का मंगलचरना है सामुदायीक प्रार्थना ? अपनी अपनी भाषा भुषा, रितीरस्में, व्रतोपासनायें, चलने दिजीये , हमारा कोइ ऐतराज नहीं. लेकीन मठ हो या मंदीर, चर्च हो या मस्जिद, वसाई हो या अग्यारी, विहार हो या गुरुद्वारा हो या क्रीडांगन हर जगह सामुदायीक प्रार्थना और ध्यान
अनुशासनपुर्वक किजीये, यहे मैं चाहता हुं. पाठ आप चाहे सो ले सकते है.या अपने अपने धर्म
ग्रंथ के वचन भी गा सकते है लेकीन उनमे ऐसी व्यापक तथा
सामुदायिक भावना आवश्य हो. सभी जाति पंथ के लोग मिलकर गांव
- गांव इस तरह यदी महान संकल्पो को फ़ैलावेंगे तो उसिमेसे सामाजीक हृदय विकसित होने लगेगा; मनुष्यो के बीच भेदभावों की दीवार धडाधड गिरने लगेगी
और नवचेतनाकी खुली बहती हवामे सत्ययुगके समान
स्वर्गसम संसार साकार होने लगेगा, ऐसा मुज़े पूरा विश्वास है. जगच्चालक परमात्मा एकही है
उसे चाहे जिस नामसे पुकारिये. किंतु अपनी प्रार्थना में
यह यह सुत्र अवश्य रखीये कि -
सर्वे त्र सुखिन: सन्तु, सर्वेसन्तु निरामया :
सर्वेभद्राणि पश्यंतु, मा कश्चित् दु:ख माप्नुयात्
तुकड्यादास
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- जय गुरुदेव